चाह नहीं मुझको सुनने की, मोहन की बंसी की तान, क्या होगा उसको सुन सुनकर; भूखे भक्ति नहीं भगवान!
अनहद नाद सुनूँ मैं क्यों प्रिय, होगी व्यर्थ चित्त में भ्रांति, मुझको तो रोटी के स्वर में, मिलती है असीम चिर शान्ति!
इच्छा नहीं मुझे सुनने की, दुख-वीणा का करुण विहाग आओ मिलकर नित्य अलापें, अति पुनीत रोटी का राग!
रोटी की रटना लगी, भूख उठी है जाग, आठ पहर, चौंसठ घड़ी, यही हमारा राख!
-श्रीमन्नारायण अग्रवाल [रोटी का राग, 1937, सस्ता साहित्य मण्डल, दिल्ली] |